मेरे काव्यसंग्रह "धरा के रंग" से
मनुजता की चूनरी
ज़िन्दगी हमारे लिए
आज भार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
हादसे सबल हुए हैं गाँव-गली-राह में खून से सनी हुई छुरी छिपी हैं बाँह में मौत ज़िन्दगी की रेल में सवार हो गई! मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
भागने की होड़ में
उखाड़ है-पछाड़ है
आज जोड़-तोड़ में
अजीब छेड़-छाड़ है
जीतने की चाह में
करारी हार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
चीत्कार काँव-काँव छल रही हैं धूप-छाँव आदमी के ठाँव-ठाँव चल रहे हैं पेंच-दाँव सभ्यता के हाथ सभ्यता शिकार हो गई! मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
|
Followers
28 February, 2014
"मनुजता की चूनरी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लेबल:
. धरा के रंग,
गीत,
मनुजता की चूनरी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
कल 01/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
सुन्दर ......
ReplyDelete