"नया निर्माण"
पतझड़ के पश्चात वृक्ष नव पल्लव को पा जाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
भीषण सर्दी, गर्मी का सन्देशा लेकर आती ,
गर्मी आकर वर्षाऋतु को आमन्त्रण भिजवाती,
सजा-धजा ऋतुराज प्रेम के अंकुर को उपजाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
खेतों में गेहूँ-सरसों का सुन्दर बिछा गलीचा,
सुमनों की आभा-शोभा से पुलकित हुआ बगीचा,
गुन-गुन करके भँवरा कलियों को गुंजार सुनाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
पेड़ नीम का आगँन में अब फिर से है गदराया,
आम और जामुन की शाखाओं पर बौर समाया.
कोकिल भी मस्ती में भरकर पंचम सुर में गाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
परिणय और प्रणय की सरगम गूँज रहीं घाटी में,
चन्दन की सोंधी सुगन्ध आती अपनी माटी में,
भुवन भास्कर स्वर्णिम किरणें धरती पर फैलाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
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27 September, 2013
"नया निर्माण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
23 September, 2013
"यही कहानी कहती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कल-कल, छल-छल करती गंगा,
मस्त चाल से बहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।
हो जाता निष्प्राण कलेवर,
जब धड़कन थम जाती हैं।
सड़ जाता जलधाम सरोवर,
जब लहरें थक जाती हैं।
चरैवेति के बीज मन्त्र को,
पुस्तक-पोथी कहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।
हरे वृक्ष की शाखाएँ ही,
झूम-झूम लहरातीं हैं।
सूखी हुई डालियों से तो,
हवा नहीं आ पाती है।
जो हिलती-डुलती रहती है,
वही थपेड़े सहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।
काम अधिक हैं थोड़ा जीवन,
झंझावात बहुत फैले हैं।
नहीं हमेशा खिलता गुलशन,
रोज नहीं लगते मेले हैं।
सुख-दुख की आवाजाही तो,
सदा संग में रहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
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यही कहानी कहती है
19 September, 2013
"सपनों में घिर आते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"सपनों में घिर आते हैं"
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सपनों में घिर आते हैं
15 September, 2013
"अरमानों की डोली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"अरमानों की डोली"
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10 September, 2013
"स्वप्न सलोने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"स्वप्न सलोने"
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06 September, 2013
"सितारे टूट गये हैं..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"सितारे टूट गये हैं..."
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03 September, 2013
"बढ़े चलो-बढ़े चलो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"बढ़े चलो-बढ़े चलो"
है कठिन बहुत डगर, चलना देख-भालकर,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
दलदलों में धँस न जाना, रास्ते सपाट हैं
ज़लज़लों में फँस न जाना, आँधियाँ विराट हैं,
रेत के समन्दरों को, कुशलता से पार कर,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
मृगमरीचिका में, दूर-दूर तक सलिल नही,
ताप है समीर में, सुलभ-सुखद अनिल नहीं,
तन भरा है स्वेद से, देह चिपचिपा रही,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
कट गया अधिक सफर, बस जरा सा शेष है,
किन्तु जो बचा हुआ, वही तो कुछ विशेष है,
दीप झिलमिला रहे, पाँव डगमगा रहे,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
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बढ़े चलो-बढ़े चलो
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