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27 September, 2013

"नया निर्माण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"नया निर्माण"
पतझड़ के पश्चात वृक्ष नव पल्लव को पा जाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
भीषण सर्दी, गर्मी का सन्देशा लेकर आती ,
गर्मी आकर वर्षाऋतु को आमन्त्रण भिजवाती,
सजा-धजा ऋतुराज प्रेम के अंकुर को उपजाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
खेतों में गेहूँ-सरसों का सुन्दर बिछा गलीचा,
सुमनों की आभा-शोभा से पुलकित हुआ बगीचा,
गुन-गुन करके भँवरा कलियों को गुंजार सुनाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
पेड़ नीम का आगँन में अब फिर से है गदराया,
आम और जामुन की शाखाओं पर बौर समाया.
कोकिल भी मस्ती में भरकर पंचम सुर में गाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।

परिणय और प्रणय की सरगम गूँज रहीं घाटी में,
चन्दन की सोंधी सुगन्ध आती अपनी माटी में,
भुवन भास्कर स्वर्णिम किरणें धरती पर फैलाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
मलयानिल से पवन बसन्ती चलकर वन में आया,
फागुन में सेंमल-पलाश भी, जी भरकर मुस्काया,
निर्झर भी कल-कल, छल-छल की सुन्दर तान सुनाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।

23 September, 2013

"यही कहानी कहती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
जिसको अपना स्वर दिया है अर्चना चाव जी ने।
"यही कहानी कहती है"
कल-कल, छल-छल करती गंगा,
मस्त चाल से बहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।

हो जाता निष्प्राण कलेवर,
जब धड़कन थम जाती हैं।
सड़ जाता जलधाम सरोवर,
जब लहरें थक जाती हैं।
चरैवेति के बीज मन्त्र को,
पुस्तक-पोथी कहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।

हरे वृक्ष की शाखाएँ ही,
झूम-झूम लहरातीं हैं।
सूखी हुई डालियों से तो,
हवा नहीं आ पाती है।
जो हिलती-डुलती रहती है,
वही थपेड़े सहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।

काम अधिक हैं थोड़ा जीवन,
झंझावात बहुत फैले हैं।
नहीं हमेशा खिलता गुलशन,
रोज नहीं लगते मेले हैं।
सुख-दुख की आवाजाही तो,
सदा संग में रहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।

19 September, 2013

"सपनों में घिर आते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"सपनों में घिर आते हैं"
वो अनजाने से परदेशी!
मेरे मन को भाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।। 

पतझड़ लगता है वसन्त,
वीराना सा लगता मधुबन,
जब वो घूँघट में से अपनी,
मोहक छवि दिखलाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।। 

 उनकी आहट पाकर गुनगुन,
गाने लगता भँवरा गुंजन,
शोख-चटक कलिका बनकर,
वो उपवन में मुस्काते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।

 चकाचौंध कर देने वाली,
होती उनकी चमक निराली,
आसमान की छाती पर,
जब काले बादल छाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।

अँखियाँ देतीं मौन निमन्त्रण,
बिन पाती का है आमन्त्रण,
सपनों की दुनिया को छोड़ो,
मन से तुम्हे बुलाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।। 

15 September, 2013

"अरमानों की डोली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"अरमानों की डोली"
 अरमानों की डोली आई, जब से मेरे गाँव में।
पवनबसन्ती चलकर आई, गाँव-गली हर ठाँव में।। 
बने हकीकत, स्वप्न सिन्दूरी, चहका है घर-आँगन भी,
पूर्ण हो गई आस अधूरी, महका मन का उपवन भी,
कोयल गाती राग मधुर, पेड़ों की ठण्डी छाँव में।
पवनबसन्ती चलकर आई, गाँव-गली हर ठाँव में।।  
खनक रहीं हाथों में चुड़ियाँ, कंगन भरते किलकारी,
चूम रहा माथे को टीका, लटक रहे झूमर भारी,
छनक-छनक बजतीं पैजनियाँ, ठुमक-ठुमक कर पाँव में।
पवनबसन्ती चलकर आई, गाँव-गली हर ठाँव में।।   
भाभी-भाभी कहकर बहना, फूली नहीं समाती है,
नयी नवेली नया शब्द सुन, पुलकित हो हर्षाती है,
 सागर से भर लाया माणिक, नाविक अपनी नाव में।
पवनबसन्ती चलकर आई, गाँव-गली हर ठाँव में।। 

10 September, 2013

"स्वप्न सलोने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"स्वप्न सलोने"
 मन के नभ पर श्यामघटाएँ, अक्सर ही छा जाती हैं।
तन्द्रिल आँखों में मधुरिम से, स्वप्न सलोने लाती हैं।।

निन्दिया में आभासी दुनिया, कितनी सच्ची लगती है,
परियों की रसवन्ती बतियाँ, सबसे अच्छी लगती हैं,
जन्नत की मृदुगन्ध हमारे, तन-मन को महकाती है।
तन्द्रिल आँखों में मधुरिम से, स्वप्न सलोने लाती हैं।।

दिखा दिया है कोना-कोना, घुमा-घुमाकर उपवन में,
बिछा दिया है सुखद बिछौना, अरमानों के आँगन में,
अब तो दिन में भी आँखों की, पलकें बन्द हो जातीं हैं।
तन्द्रिल आँखों में मधुरिम से, स्वप्न सलोने लाती हैं।।

दबे पाँव वो आ जाती हैं, बिना किसी भी आहट के,
सुन्दर सुमन खिला जाती हैं, वो अलिन्द में चाहत के,
चम्पा की कलियाँ बनकर वो, मन्द-मन्द मुस्काती हैं।
तन्द्रिल आँखों में मधुरिम से, स्वप्न सलोने लाती हैं।।

06 September, 2013

"सितारे टूट गये हैं..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"सितारे टूट गये हैं..."
क्यों नैन हुए हैं मौन,
आया इनमें ये कौन?

कि आँसू रूठ गये हैं...!
सितारे टूट गये हैं....!!

थीं बहकी-बहकी गलियाँ,
चहकी-चहकी थीं कलियाँ,
भँवरे करते थे गुंजन,
होठों का लेते चुम्बन,
ले गया उड़ाकर निंदिया,
बदरा बन छाया कौन,
कि सपने छूट गये हैं....!
सितारे टूट गये हैं....!!

जब वो बाँहे फैलाते,
हम खुद को रोक न पाते,
बढ़ जाती थी तब धड़कन
अंगों में होती फड़कन,
खो गया हिया का चैन,
कि छाले फूट गये हैं....!
सितारे टूट गये हैं....!!

रसभरी प्रेम की बतियाँ,
हँसती-गाती वो रतियाँ,
मदमस्त हवा के झोंखे,
आने से किसने रोके,
आशिक बनकर दिन-रैन,
जवानी लूट गये हैं।
सितारे टूट गये हैं....!!

03 September, 2013

"बढ़े चलो-बढ़े चलो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"बढ़े चलो-बढ़े चलो"

कारवाँ गुजर रहा , रास्तों को नापकर।
मंजिलें बुला रहींबढ़े चलो-बढ़े चलो!
है कठिन बहुत डगरचलना देख-भालकर,
धूप चिलचिला रहीबढ़े चलो-बढ़े चलो!!

दलदलों में धँस न जाना, रास्ते सपाट हैं
ज़लज़लों में फँस न जाना, आँधियाँ विराट हैं,
रेत के समन्दरों कोकुशलता से पार कर,
धूप चिलचिला रहीबढ़े चलो-बढ़े चलो!!

मृगमरीचिका में, दूर-दूर तक सलिल नही,
ताप है समीर में, सुलभ-सुखद अनिल नहीं,
तन भरा है स्वेद से, देह चिपचिपा रही,
धूप चिलचिला रहीबढ़े चलो-बढ़े चलो!!

कट गया अधिक सफर, बस जरा सा शेष है,
किन्तु जो बचा हुआ, वही तो कुछ विशेष है,
दीप झिलमिला रहे, पाँव डगमगा रहे,
धूप चिलचिला रहीबढ़े चलो-बढ़े चलो!!

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