मेरे काव्यसंग्रह "धरा के रंग" से
मनुजता की चूनरी
ज़िन्दगी हमारे लिए
आज भार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
हादसे सबल हुए हैं गाँव-गली-राह में खून से सनी हुई छुरी छिपी हैं बाँह में मौत ज़िन्दगी की रेल में सवार हो गई! मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
भागने की होड़ में
उखाड़ है-पछाड़ है
आज जोड़-तोड़ में
अजीब छेड़-छाड़ है
जीतने की चाह में
करारी हार हो गई!
मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
चीत्कार काँव-काँव छल रही हैं धूप-छाँव आदमी के ठाँव-ठाँव चल रहे हैं पेंच-दाँव सभ्यता के हाथ सभ्यता शिकार हो गई! मनुजता की चूनरी तो
तार-तार हो गई!!
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28 February, 2014
"मनुजता की चूनरी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मनुजता की चूनरी
24 February, 2014
"नवगीत-पंक में खिला कमल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्यसंग्रह "धरा के रंग" से
पंक में खिला कमल स्वर अर्चना चावजी
पंक में खिला कमल,
किन्तु है अमल-धवल!
बादलों की ओट में से,
चाँद झाँकता नवल!!
डण्ठलों के साथ-साथ,
तैरते हैं पात-पात,
रश्मियाँ सँवारतीं ,
प्रसून का सुवर्ण-गात,
देखकर अनूप-रूप को,
गया हृदय मचल!
बादलों की ओट में से,
चाँद झाँकता नवल!!
पंक के सुमन में ही,
सरस्वती विराजती,
श्वेत कमल पुष्प को,
ही शारदे निहारती,
पूजता रहूँगा मैं,
सदा-सदा चरण-कमल!
बादलों की ओट में से,
चाँद झाँकता नवल!!
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20 February, 2014
"धरती का भगवान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्यसंग्रह "धरा के रंग" से
"धरती का भगवान"
सूरज चमका नील-गगन में।
फैला उजियारा आँगन में।। काँधे पर हल धरे किसान।
करता खेतों को प्रस्थान।।
मेहनत से अनाज उपजाता। यह जग का है जीवन दाता।। खून-पसीना बहा रहा है। स्वेद-कणों से नहा रहा है।। जीवन भर करता है काम। लेता नही कभी विश्राम।। चाहे सूर्य अगन बरसाये। चाहे घटा गगन में छाये।। यह श्रम में संलग्न हो रहा। अपनी धुन में मग्न हो रहा।। मत कहना इसको इन्सान। यह धरती का है भगवान।। |
16 February, 2014
"बेटी की पुकार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्यसंग्रह "धरा के रंग" से
"बेटी की पुकार"
माता मुझको भी तो,
अपनी दुनिया में आने दो!
सीता-सावित्री बन करके,
जग में नाम कमाने दो!
अच्छी सी बेटी बनकर मैं,
अच्छे-अच्छे काम करूँगी,
अपने भारत का दुनिया में
सबसे ऊँचा नाम करूँगी,
माता मुझको भी तो अपना,
घर-संसार सजाने दो!
माता मुझको भी तो
अपनी दुनिया में आने दो!
बेटे दारुण दुख देते हैं
फिर भी इतने प्यारे क्यों?
सुख देने वाली बेटी के
गर्दिश में हैं तारे क्यों?
माता मुझको भी तो अपना
सा अस्तित्व दिखाने दो!
माता मुझको भी तो
अपनी दुनिया में आने दो!
बेटों की चाहत में मैया!
क्यों बेटी को मार रही हो?
नारी होकर भी हे मैया!
नारी को दुत्कार रही हो,
माता मुझको भी तो अपना
जन-जीवन पनपाने दो!
माता मुझको भी तो
अपनी दुनिया में आने दो!
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12 February, 2014
"आशंका" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
कविता
कौंध गई बे-मौसम,
चपला नीलगगन में!
अनहोनी की आशंका,
गहराई मन में!!
तेजविहीन हुए तारे,
चन्दा शर्माया।
गन्धहीन हो गया सुमन,
उपवन अकुलाया!!
रंग हुए बदरंग,
अल्पना डरी हुई है!
भाव हुए हैं भंग
कल्पना मरी हुई है!!
खलिहानों में पड़े हुए
गेहूँ सकुचाए!
दीन-किसानों के
चमके चेहरे मुर्झाए!!
वही समझ सकता है,
जिसकी है यह माया!
कहीं गुनगुनी धूप,
कहीं है शीतल छाया!!
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08 February, 2014
"जरा सी बात" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
ग़ज़लिका
जरा सी बात में ही,
युद्ध होते हैं बहुत भारी।
जरा सी बात में ही,
क्रुद्ध होते हैं धनुर्धारी।।
जरा सी बात ही,
माहौल में विष घोल देती है।
जरा सी जीभ ही,
कड़ुए वचन को बोल देती है।।
मगर हमको नही इसका,
कभी आभास होता है।
अभी जो घट रहा कल को,
वही इतिहास होता है।।
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02 February, 2014
"बादल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
कहीं-कहीं छितराये बादल,
कहीं-कहीं गहराये बादल।
काले बादल, गोरे बादल,
अम्बर में मँडराये बादल।
उमड़-घुमड़कर, शोर मचाकर,
कहीं-कहीं बौराये बादल।
भरी दोपहरी में दिनकर को,
चादर से ढक आये बादल।
खूब खेलते आँख-मिचौली,
ठुमक-ठुमककर आये बादल।
दादुर, मोर, पपीहा को तो,
मेघ-मल्हार सुनाये बादल।
जिनके साजन हैं विदेश में,
उनको बहुत सताये बादल।
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