"पंछी उड़ता नीलगगन में"
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30 August, 2013
"पंछी उड़ता नीलगगन में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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पंछी उड़ता नीलगगन में
26 August, 2013
"सावन आया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"सावन आया"
रिम-झिम करता सावन आया।
शीतल पवन सभी को भाया।।
उगे गगन में गहरे बादल,
भरा हुआ जिनमें निर्मल जल,
इन्द्रधनुष ने रूप दिखाया।
श्वेत-श्याम घन बहुत निराले,
आसमान पर डेरा डाले,
कौआ काँव-काँव चिल्लाया।
जोर-शोर से बिजली कड़की,
सहम उठे हैं लड़का-लड़की,
देख चमक सूरज शर्माया।
खेत धान से धानी-धानी,
घर मे पानी बाहर पानी,
मेघों ने पानी बरसाया।
लहरों का स्वरूप है चंगा,
मचल रहीं हैं यमुना-गंगा,
पेड़ों ने नवजीवन पाया।
झूले पड़े हुए घर-घर में,
चहल-पहल है प्रांत-नगर में,
झूल रही हैं ललिता-माया।
मोहन ने महफिल है जोड़ी,
मजा दे रही चाय-पकौड़ी,
मानसून ने मन भरमाया।
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सावन आया
22 August, 2013
"कभी न भूलें सावन में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"कभी न भूलें सावन में"
पेंग बढ़ाकर नभ को छू लें, झूला झूलें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। मँहगाई की मार पड़ी है, घी और तेल हुए महँगे, कैसे तलें पकौड़ी अब, पापड़ क्या भूनें सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। हरियाली तीजों पर, कैसे लायें चोटी-बिन्दी को, सूखे मौसम में कैसे, अब सजें-सवाँरे सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। आँगन से कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा, रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में। मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में।। |
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18 August, 2013
"दिवस सुहाने आने पर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
"दिवस सुहाने आने पर"
दिल से दिल मिल जाने पर।
सच्चे सब सपने हो जाते,
दिवस सुहाने आने पर।।
सूरज की क्या बात कहें,
चन्दा भी आग उगलता है,
साथ छोड़ जाती परछाई,
गर्दिश के दिन आने पर।
दूर-दूर से अच्छे लगते
वन-पर्वत, बहती नदियाँ,
कष्टों का अन्दाज़ा होता,
बाशिन्दे बन जाने पर।
पानी से पानी की समता,
कीचड़ दाग लगाती है,
साज और संगीत बताता,
सुर को ग़लत लगाने पर।
हर पत्थर हीरा नहीं होता, ध्यान हमेशा ये रखना, सोच-समझकर निर्णय लेना, रत्नों को अपनाने में।
जो सुख-दुख में सहभागी हों,
वो मिलते हैं किस्मत से,
स्वर्ग, नर्क सा लगने लगता,
मन का मीत न पाने पर।
सच्चे सब सपने हो जाते,
दिवस सुहाने आने पर।।
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दिवस सुहाने आने पर
14 August, 2013
"आजादी की वर्षगाँठ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
चौमासे में श्याम घटा जब आसमान पर छाती है।
आजादी के उत्सव की वो मुझको याद दिलाती है।।
देख फुहारों को उगते हैं, मेरे अन्तस में अक्षर,
इनसे ही कुछ शब्द बनाकर तुकबन्दी हो जाती है।
खुली हवा में साँस ले रहे हम जिनके बलिदानों से,
उन वीरों की गौरवगाथा, मन में जोश जगाती है।
लाठी-गोली खाकर, कारावास जिन्होंने झेला था,
वो पुख़्ता बुनियाद हमारी आजादी की थाती है।
खोल पुरानी पोथी-पत्री, भारत का इतिहास पढ़ो,
यातनाओं के मंजर पढ़कर, छाती फटती जाती है।
आओ अमर शहीदों का, हम प्रतिदिन वन्दन-नमन करें,
आजादी की वर्षगाँठ तो, एक साल में आती है।
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10 August, 2013
"उपवन लगे रिझाने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मौन निमन्त्रण देतीं कलियाँ,
सुमन लगे मुस्काने।
वासन्ती परिधान पहन कर,
उपवन लगे रिझाने।।
पाकर मादक गन्ध
शहद लेने मधुमक्खी आई,
सुन्दर पंखोंवाली तितली
को सुगन्ध है भाई,
चंचल-चंचल चंचरीक,
आये गुंजार सुनाने।
वासन्ती परिधान पहन कर,
उपवन लगे रिझाने।।
सबका तन गदराया,
महक रहे हैं खेत बसन्ती,
आम-नीम बौराया,
कोयल, कागा और कबूतर
लगे रागनी गाने।
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06 August, 2013
"चहकती भोर नहीं है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
आसमान में उड़ने का तो, ओर नहीं है छोर नहीं है।
लेकिन हूँ लाचार पास में बची हुई अब डोर नहीं है।।
दिवस ढला है, हुआ अन्धेरा, दूर-दूर तक नहीं सवेरा,
कब कट जाए पतंग सलोनी, साँसों पर कुछ जोर नहीं है।
तन चाहे हो भोला-भाला, लेकिन मन होता मतवाला,
जब होता अवसान प्राण का, तब जीवन का शोर नहीं है।
वो ही कर्ता, वो ही धर्ता, कुशल नियामक वो ही हर्ता,
जो उसकी माया को हर ले, ऐसा कोई चोर नहीं है।
“रूप” रंग होता मूरत में, आकर्षण होता सूरत में,
लेकिन माटी के पुतले में, कभी चहकती भोर नहीं है। |
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02 August, 2013
"हमारी मातृभाषा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ये हमारी तरह है सरल औ' सुगम,
सारे संसार में इसका सानी नहीं।
जो लिखा है उसी को पढ़ो मित्रवर,
बोलने में कहीं बेईमानी नहीं।
BUT व PUT का नहीं भेद इसमें भरा,
धाँधली की कहीं भी निशानी नहीं।
व्याकरण में भरा पूर्ण विज्ञान है,
जोड़ औ' तोड़ की कुछ कहानी नहीं।
सन्धि नियमों में पूरी उतरती खरी,
मातृभाषा हमारी बिरानी नहीं।
मेरे भारत की भाषाएँ फूलें-फलें,
हमको सन्तों की वाणी भुलानी नहीं।
"रूप" इसका सँवारें सकल विश्व में,
रुकने पाए हमारी रवानी नहीं।
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हमारी मातृभाषा
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