मेरे काव्यसंग्रह "धरा के रंग" से
कंचन का बिछौना
रूप धरती ने धरा कितना सलोना।
बिछ गया खेतों में कंचन का बिछौना।। भार से बल खा रहीं हैं डालियाँ, शान से इठला रहीं हैं बालियाँ, छा गया चारों तरफ सोना ही सोना। बिछ गया खेतों में कंचन का बिछौना।। रश्मियों ने रूप कुन्दन का सँवारा, नयन को सबके लुभाता यह नज़ारा, धान्य से सज्जित हुआ हरेक कोना। बिछ गया खेतों में कंचन का बिछौना।। मस्त होकर गा रहा लोरी पवन है, नाचता होकर मुदित जन-गण मगन है, मिल गया उपहार में स्वर्णिम खिलौना। बिछ गया खेतों में कंचन का बिछौना।। |
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04 March, 2014
"कंचन का बिछौना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गीत
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