जलने को परवाने आतुर, आशा के दीप जलाओ तो।
कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधुवन में महक समाई है, कलियों में यौवन सा छाया, मस्ती में दीवाना होकर, भँवरा उपवन में मँडराया, वह झूम रहा होकर व्याकुल, तुम पंखुरिया फैलाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधुमक्खी भीने-भीने स्वर में, सुन्दर गीत सुनाती है, सुन्दर पंखों वाली तितली भी, आस लगाए आती है, सूरज की किरणें कहती है, कलियों खुलकर मुस्काओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधु का कण भर इनको मत दो, पर आमन्त्रण तो दे दो, पहचानापन विस्मृत करके, इक मौन-निमन्त्रण तो दे दो, काली घनघोर घटाओं में, बिजली बन कर आ जाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। |
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26 September, 2014
‘‘आशा के दीप जलाओ’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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आशा के दीप,
गीत
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