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29 July, 2013

"हो गया है साफ अम्बर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से
एक गीत
"हो गया है साफ अम्बर"
ढल गई बरसात अब तो, हो गया है साफ अम्बर।
खिल उठी है चिलचिलाती, धूप फिर से आज भू पर।।

उमस ने सुख-चैन छीना,
हो गया दुश्वार जीना,
आ रहा फिर से पसीना, तन-बदन पर।
खिल उठी है चिलचिलाती, धूप फिर से आज भू पर।।

हरितिमा होती सुनहरी जा रही.
महक खेतों से सुगन्धित आ रही,
धान के बिरुओं ने पहने आज झूमर।
खिल उठी है चिलचिलाती, धूप फिर से आज भू पर।।

ढल रहा गर्मी का यौवन जानते सब,
कुछ दिनों में सर्द मौसम आयेगा जब,
फिर निकल आयेंगे स्वेटर और मफलर।
खिल उठी है चिलचिलाती, धूप फिर से आज भू पर।।

24 July, 2013

"मेरे काव्यसंग्रह से एक गीत-आओ साथी प्यार करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से
से एक गीत
आओ साथी प्यार करें..!
ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही,
सिहरन बढ़ती जाए!
आओ साथी प्यार करें हम,
मौसम हमें बुलाए!!

त्यौहारों की धूम मची है,
पंछी कलरव गान सुनाते।
बया-युगल तिनके ला करके,
अपना विमल-वितान बनाते।
झूम-झूमकर रसिक भ्रमर भी,
गुन-गुन गीत सुनाए!
आओ साथी प्यार करें हम,
मौसम हमें बुलाए!!

बीत गई बरसात हुआ,
गंगा का निर्मल पानी।
नीले नभ पर सूरज-चन्दा,
चाल चलें मस्तानी।
उपवन में भोली कलियों का,
कोमल मन मुस्काए!
आओ साथी प्यार करें हम,
मौसम हमें बुलाए!!

हलचल करते रहना ही तो,
जीवन के लक्षण हैं।
चार दिनों के लिए चाँदनी,
बाकी काले क्षण हैं।
बार-बार यूँ ही जीवन में,
सुखद चन्द्रिका छाए!
आओ साथी प्यार करें हम,
मौसम हमें बुलाए!!

रोली-अक्षत-चन्दन लेकर,
करें आज अभिनन्दन।
सुख देने वाली सत्ता का,
आओ करें हम वन्दन।
उसकी इच्छा के बिन कोई,
पत्ता हिल ना पाए!
आओ साथी प्यार करें हम,
मौसम हमें बुलाए!!

20 July, 2013

"मेरे काव्यसंग्रह 'धरा के रंग' से एक वन्दना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

"धरा के रंग"
 
से एक वन्दना
रोज-रोज सपनों में आकर,
छवि अपनी दिखलाती हो!
शब्दों का भण्डार दिखाकर,
रचनाएँ रचवाती हो!!

कभी हँस पर, कभी मोर पर,
जीवन के हर एक मोड़ पर,
भटके राही का माता तुम,
पथ प्रशस्त कर जाती हो!
शब्दों का भण्डार दिखाकर,
रचनाएँ रचवाती हो!!

मैं हूँ मूढ़, निपट अज्ञानी,
नही जानता काव्य-कहानी,
प्रतिदिन मेरे लिए मातु तुम,
नव्य विषय को लाती हो!
शब्दों का भण्डार दिखाकर,
रचनाएँ रचवाती हो!!

नही जानता पूजन-वन्दन,
नही जानता हूँ आराधन,
वर्णों की माला में माता,
तुम मनके गुँथवाती हो!
शब्दों का भण्डार दिखाकर,
रचनाएँ रचवाती हो!!

17 July, 2013

"अपने कविता संग्रह "धरा के रंग" की सामग्री को क्रमशः प्रकाशित करूँगा" (डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’)

मित्रों..!
नवम्बर, 2011 में प्रकाशित अपने कविता संग्रह 
"धरा के रंग" की सामग्री को क्रमशः प्रकाशित करूँगा। 
मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक की कविताएँ आप तक पहुँचेंगी 
और आपका स्नेह मुझे प्राप्त होगा।
भूमिका 
जीवन के विविध रंगों में रंगी
धरा का प्रभावशाली चित्रण
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक के गीतों और गजलों का यह संग्रह अपनी रचनाओं की सहज शब्दावली व मधुर संरचनाओं के कारण विशेषरूप से आकर्षित करता है। अपने नाम धरा के रंग को सार्थक करते इस संग्रह में ऐसे रचनाकार के दर्शन होते हैं जो प्रकृति की आकर्षक काल्पनाओं में उड़ता तो है पर उसके पैर सदा सत्य की मजबूत धरा पर टिके रहते हैं। संग्रह में जीवन के विविध रंगों को शब्द मिले हैं और विविध आयामों से इन्हें परखा गया है।
    एक ओर जहाँ वेदना, ईमान, स्वार्थ, बचपन, एकता, मनुजता आदि अमूर्त मानवीय संवेदनाओं पर कवि की संवेदना बिखरती है तो दूसरी ओर प्राकृतिक उपादानों को रचनाकार ने अपनी रचना का विषय बनाया है। इसके अतिरिक्त प्रेम के विभिन्न रूपों को भी उनकी रचनाओं में विस्तार मिला है। वे अपने परिवेश की सामाजिक समस्याओं से भी अछूते नहीं रहे हैं। कन्याभ्रूण हत्या जैसी ज्वलंत समस्या को उठाते हुए वे लिखते हैं-
बेटों की चाहत में मैया!
क्यों बेटी को मार रही हो?
नारी होकर भी हे मैया!
नारी को दुत्कार रही हो,
माता मुझको भी तो अपना
जन-जीवन पनपाने दो!
माता मुझको भी तो
अपनी दुनिया में आने दो!
वे सहज निश्छल जीवन के प्रति समर्पित हैं तथा आधुनिक समाज के बनावटी आभिजात्य को बड़ी विनम्रता से खारिज करते हुए भोलेपन की पक्षधरता करते हुए कहते हैं-
जब भी सुखद-सलोने सपने,
नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।
या फिर-
पागलपन में भोलापन हो!
ऐसा पागलपन अच्छा है!!
समाज में एकता के महत्व पर बात करते हुए वे कहते हैं-
एकता से बढ़ाओ मिलाकर कदम
रास्ते हँसते-हँसते ही कट जायेंगे।
देश के प्रति चिंतित होते हुए वे कहते हैं-
आज मेरे देश को क्या हो गया है?
 और अति आधुनिकता के प्रति-
उड़ा ले गई पश्चिम वाली,
आँधी सब लज्जा-आभूषण,
इस संग्रह की रचनाएँ न केवल सामाजिक समस्याओं को इंगित करती हैं बल्कि उनका एक समुचित हल भी प्रस्तुत करती हैं। अधिकतर स्थानों पर कवि ने बेहतर समाज के निर्माण की गुहार करते हुए आशावादी दृष्टिकोण अपनाया हैं। इस संग्रह की उनकी रचनाओं को विषयों के आधार पर चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
सामाजिक समस्याओं की कविताएँ,
प्रकृति की कविताएँ,
प्रेम की कविताएँ
और मानवीय संवेदनाओं की कविताएँ ।
ऐसा नहीं है कि हर रचना को किसी न किसी श्रेणी के ऊपर लिखा गया है बल्कि ये स्वाभाविक रूप से उनकी रचनाओं में उपस्थित हुई हैं। यही कारण है कि कभी कभी एक ही रचना को एक से अधिक श्रेणियों में रखा जा सकता है। जो प्रकृति कवियों की सबसे बड़ी प्रेरणा स्रोत है। मयंक जी भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। उन्हें सबसे अधिक वर्षाऋतु लुभाती है और उसमें भी बादल। इसके सुंदर चित्र उनकी रचनाओं में देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार वे वर्षा के साथ अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं-
बादल जब जल को बरसाता,
गलियों में पानी भर जाता,
गीला सा हो जाता आँगन।
एक और रचना में वे वर्षा को इस प्रकार याद करते हैं-
बारिश का सन्देशा लाये!!
नभ में काले बादल छाये!
जल से भरा धरा का कोना,
हरी घास का बिछा बिछौना,
खुश होकर मेंढक टर्राए!
नभ में काले बादल छाये!
उन्हें पेड़ों से गहरा लगाव है और आम, नीम, जामुन आदि पेड़ों के नाम सहजता से उनकी रचनाओं में आते हैं। अमलतास पर उनकी एक बड़ी लुभावनी रचना इस संग्रह में है जिसमें उन्होंने फूलों के गुच्छे को झूमर की उपमा दी है-
अमलतास के झूमर की, आभा-शोभा न्यारी है।
मनमोहक मुस्कान तुम्हारी, सबको लगती प्यारी है।।
मयंक जी की रचनाएँ प्रेम के आदर्शवादी स्वरूप की छटा प्रस्तुत करती हैं। वे अपनेपन के लिये प्रेम को रोपना आवश्यक समझते हैं। प्रेम के बिना न फूल खिलते हैं, न हवा में महक होती है, न घर होता है और न सृजन। प्रेम के बिना अदावत, बगावत, शिकवा, शिकायत कुछ भी नहीं होता। विरह के गीत भी तो प्रेम के कारण ही जन्म लेते हैं। प्रेम को जग का आधरभूत तत्व मानते हुए वे कहते हैं-
अगर दिलदार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!
न होती सृष्टि की रचना,
न होता धर्म का पालन।
न होती अर्चना पूजा,
न होता लाड़ और लालन।
अगर परिवार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!
उनकी रचनाओं में वर्णित प्रेम ऐसा अमृत है जिसके बरसने से ऋतुएँ आती-जाती हैं, ठूँठ हरे हो जाते हैं और देश के लिये वीर अपना शीश चढ़ाकर अमर हो जाते हैं। प्रेम रस में डूबकर तो सभी अभिभूत हो जाते हैं-
तुमने अमृत बरसाया तो,
मैं कितना अभिभूत हो गया!
कहीं यह प्रेम चंदा-चकोरी है तो कहीं सागर का मोती। बड़ी तल्लीनता से कवि कहता है-
तुम मनको पढ़कर देखो तो!
कुछ आगे बढ़कर देखो तो!!
प्रेम की आवश्यकता और व्यग्रता उनकी रचना प्यार तुम्हारा में देखने को मिलती है-
कंकड़ को भगवान मान लूँ,
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा!
काँटों को वरदान मान लूँ,
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा!
या फिर-
आप इक बार ठोकर से छू लो हमें,
हम कमल हैं चरण-रज से खिल जायेगें!

मयंक जी की रचनाओं में ईमान, गरीबी, सद्भावना, चैन, आराम, बचपन का भोलापन आदि मानवीय संबंधों की बहुआयामी पड़ताल मिलती है। जीवन के चक्र के प्रति उनकी अद्भुत दृष्टि मिलती है जिसे वे चक्र समझ नहीं पाया में सहजता से समझा देते हैं। वे धैर्य को जीवन का बहुमूल्य तत्व मानते हुए हर किसी से, हर समय सुविधा की अपेक्षा करने को गलत ठहराते हैं और क्रूरता, असंवेदनशीलता, अशांति आदि के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं-
शान्ति का कपोत बाज का शिकार हो गया!
और शुभता की मंगलकामना करते हुए-
आँसू हैं अनमोल,
इन्हें बेकार गँवाना ठीक नही!
हैं इनका कुछ मोल,
इन्हें बे-वक्त बहाना ठीक नही!
दिन प्रतिदिन मुश्किल होते हुए जीवन के प्रति वे कहते हैं-
छलक जाते हैं अब आँसू, गजल को गुनगुनाने में।
नहीं है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
दुनिया से गुम होते ईमान के लिये उनके शब्द कुछ इस प्रकार आकार लेते है-
ईमान ढूँढने निकला हूँ, मैं मक्कारों की झोली में।
बलवान ढूँढने निंकला हूँ, मैं मुर्दारों की टोली में।
ताल ठोंकता काल घूमता, बस्ती और चैराहों पर,
कुछ प्राण ढूँढने निकला हूँ, मैं गद्दारों की गोली में।
सुंदर सजीव चित्रात्मक भाषा वाली ये रचनाएँ संवेदनशीलता के मर्म में डुबोकर लिखी गई हैं। आशा है कहीं न कहीं ये हर पाठक को गहराई से छुएँगी।
इस सुंदर संग्रह के लिये डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
विजयदशमी 2011
-पूर्णिमा वर्मन
पी.ओ. बाक्स 25450,
शारजाह, संयुक्त अरब इमीरात
:ःःःःःःःःः

‘धरा के रंग’ 
पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी है।
डॉ. गंगाधर राय
     साहित्य और समाज में अविछिन्न संबंध् रहा है। समाज में व्याप्त आकांक्षाएँ, कुंठाएँ, मूल्य और विसंगतियाँ साहित्यकारों की भाव संवेदना को उभारकर उन्हें रचना के लिए उत्प्रेरित करती है। 
    गंभीर प्रकृति की कविताएँ लिखनेवाले लोगों ने, चाहे वे भले ही आम आदमी के सवालों को उठाते आए हों, परंतु उन्होंने कविता के शिल्प से लेकर भाषा-शैली तथा प्रवाह को इतना क्लिष्ट बना दिया है कि उसे जनसामान्य तो क्या, साहित्य के चतुर चितेरे भी उसे समझने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। ऐसे में डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी का यह काव्य-संग्रह ‘धरा के रंग’ की भाषा बड़ी ही सहज, सरल एवं बोध्गम्य है, साथ ही प्रशंसनीय भी। 
    कवि मयंक जी का मातृभाषा के प्रति प्रेम सहज ही छलक उठता है - 
जो लिखा है उसी को पढ़ो मित्रवर,
बोलने में कहीं बेईमानी नहीं।
व्याकरण में भरा पूर्ण विज्ञान है,
जोड़ औ’ तोड़ की कुछ कहानी नहीं।
     डॉ0 शास्त्री वर्ष में एक बार मनाई जाने वाली आजादी की वर्षगाँठ से व्यथित नजर आते हैं। आपका मानना है कि जिस तरह हम अपने आराध्य को प्रतिदिन वंदन और नमन करते हैं उसी तरह हमें आजादी के रणबाँकुरों को प्रतिदिन सम्मान देना चाहिए - 
आओ अमर शहीदों का, 
हम प्रतिदिन वन्दन-नमन करें,
आजादी की वर्षगाँठ तो, 
एक साल में आती है।
   ‘लेकर आऊँगा उजियारा’ कविता के माध्यम से कवि मयंक ने यह विश्वास दिलाया है कि एक न एक दिन सबके जीवन में उजाला अवश्य आएगा। गँवई, गाँव-जमीन से जुड़ा हुआ कवि कृषि प्रधान देश में कृषि योग्य भूमि पर कंकरीट के जंगलों ; बहुमंजिली इमारतों को देखकर चिंतित होते हुए लिखते हैं - 
 सब्जी, चावल और गेंहू की, 
सिमट रही खेती सारी। 
शस्यश्यामला धरती पर,
उग रहे भवन भारी-भारी।। 
    शहर के कोलाहलपूर्ण एवं प्रदूषित वातावरण को देखते हुए आम जनमानस से नगर का मोह छोड़कर गाँव चलने का आह्वान करते हुए 

 डॉ. शास्त्री 

लिखते हैं- 
छोड़ नगर का मोह,
आओ चलें गाँव की ओर!
मन से त्यागें ऊहापोह,
आओ चलें गाँव की ओर!
     अपनी कविताओं के माध्यम से मयंक जी ने मानवता के विकास के लिए स्वप्नलोक में विचरण करना आवश्यक बताया है तथा चलना ही जीवन है के सिद्धांत पर ‘चरैवेति चरैवेति’ का संदेश भी दिया है। 
    ‘धरा के रंग’ काव्य-संग्रह की एक रचना ‘बेटी की पुकार’ में कवि ने कन्या भ्रूणहत्या जैसी सामाजिक बुराई पर गहरी दृष्टि डाली है। स्त्री-पुरुष लिंगानुपात कवि का चिंतनीय वर्ण्य विषय है। 
    समाज में समाप्त हो रहे आपसी सौहार्द्र, भाईचारा, प्रेम, सहयोग से उत्पन्न विषम परिस्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए कवि मयंक ने ‘पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा’ लिखकर यह संदेश देना चाहा है कि ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडितहोय। प्रेम असंभव को भी संभव बना देता है-
कंकड़ को भगवान मान लूँ, 
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! 
काँटों को वरदान मान लूँ, 
पा जाऊँ यदि प्यार तुम्हारा! 
     कुल मिलाकर प्रस्तुत काव्य-संग्रह ‘धरा के रंग’ केवल पठनीय ही नहीं वरन् संग्रहणीय भी है। नयनाभिराम मुखपृष्ठ, स्तरीय सामग्री तथा निर्दोष मुद्रण सभी दृष्टियों से यह स्वागत योग्य है। मुझे विश्वास है कि मयंक जी इसी प्रकारअधिकाधिक एवं उत्तमोत्तम ग्रंथों की रचना कर हिंदी की सेवा में अग्रणी बनेंगे।
-डॉ. गंगाधर राय 
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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