मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"मोटा-झोटा कात रहा हूँ"
मोटा-झोटा कात रहा हूँ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
खोटे सिक्के जमा किये थे,
मीत अजनबी बना लिए थे,
सम्बन्धों की खाई को मैं,
खुर्पी लेकर पाट रहा हूँ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
सुख का सूरज नजर न आता,
दुख का बादल हाड़ कँपाता,
नभ पर जमे हुए कुहरे को,
दीप जलाकर छाँट रहा हूँ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
आशाएँ हो गयी क्षीण हैं,
सरिताएँ जल से विहीन हैं,
प्यास बुझाने को मैं अपनी,
तुहिन कणों को चाट रहा हूँ ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
|
Followers
29 April, 2014
"मोटा-झोटा कात रहा हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लेबल:
. धरा के रंग,
गीत,
मोटा-झोटा कात रहा हूँ
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDelete