मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"सिमट रही खेती"
सब्जी, चावल और
गेँहू की, सिमट
रही खेती सारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
बाग आम
के-पेड़ नीम के आँगन से कटते जाते हैं,
जीवन
देने वाले वन भी, दिन-प्रतिदिन घटते जाते है,
लगी
फूलने आज वतन में, अस्त्र-शस्त्र की फुलवारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
आधुनिक
कहलाने को, पथ
अपनाया हमने विनाश का,
अपनाकर
पश्चिमीसभ्यता नाम दिया हमने विकास का,
अपनी
सरल-शान्त बगिया में सुलगा दी है चिंगारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
दूध-दही
की दाता गइया, बिना घास के भूखी मरती,
कूड़ा
खाने वाली मुर्गी, पुष्टाहार मजे से चरती,
सुख के
सूरज की आशाएँ तकती कुटिया बेचारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
बालक
तरसे मूँगफली को, बिल्ले
खाते हैं हलवा,
सत्ता
की कुर्सी हथियाकर, काजू खाता है कलवा,
निर्धन
कृषक कमाता माटी, दाम कमाता व्यापारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
मुख में
राम बगल में चाकू, कर डाला बरबाद सुमन,
आचारों
की सीख दे रहा, अनाचार का अब उपवन,
गरलपान
करना ही अब तो जन-जन की है लाचारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
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25 April, 2014
"सिमट रही खेती" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सिमट रही खेती
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बहुत सुंदर !
ReplyDeletebahut sach kaha sir, vinas ko vikas bataya ja raha hai....
ReplyDeleteबहुत खूब...
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