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06 August, 2013

"चहकती भोर नहीं है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से
एक ग़ज़ल
"चहकती भोर नहीं है"
आसमान में उड़ने का तो, ओर नहीं है छोर नहीं है।
लेकिन हूँ लाचार पास में बची हुई अब डोर नहीं है।।

दिवस ढला है, हुआ अन्धेरा, दूर-दूर तक नहीं सवेरा,
कब कट जाए पतंग सलोनी, साँसों पर कुछ जोर नहीं है।

तन चाहे हो भोला-भाला, लेकिन मन होता मतवाला,
जब होता अवसान प्राण का, तब जीवन का शोर नहीं है।

वो ही कर्ता, वो ही धर्ता, कुशल नियामक वो ही हर्ता,
जो उसकी माया को हर ले, ऐसा कोई चोर नहीं है।

रूप रंग होता मूरत में, आकर्षण होता सूरत में,
लेकिन माटी के पुतले में, कभी चहकती भोर नहीं है।

1 comment:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (08-08-2013) को "ब्लॉग प्रसारण- 79" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.

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