सूरज आग उगलता जाता। नभ में घन का पता न पाता।१। जन-जीवन है अकुलाया सा, कोमल पौधा मुर्झाया सा, सूखा सम्बन्धों का नाता। नभ में घन का पता न पाता।२। सूख रहे हैं बाँध सरोवर, धूप निगलती आज धरोहर, रूठ गया है आज विधाता। नभ में घन का पता न पाता।३। दादुर जल बिन बहुत उदासा, चिल्लाता है चातक प्यासा, थक कर चूर हुआ उद्गाता। नभ में घन का पता न पाता।४। बहता तन से बहुत पसीना, जिसने सारा सुख है छीना, गर्मी से तन-मन अकुलाता। नभ में घन का पता न पाता।५। खेतों में पड़ गयी दरारें, कब आयेंगी नेह फुहारें, “रूप” न ऐसा हमको भाता। नभ में घन का पता न पाता।६। |
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12 June, 2022
गीत "नभ में घन का पता न पाता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गीत,
नभ में घन का पता न पाता
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१३-०६-२०२२ ) को
'एक लेखक की व्यथा ' (चर्चा अंक-४४६०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सामायिक दोहे।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
अब इंतज़ार ख़त्म हुआ
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