मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से एक गीत
"ढूँढ़ने निकला हूँ"
ईमान ढूँढने
निकला हूँ, मैं मक्कारों की झोली में।
बलवान ढूँढने निकला हूँ, मैं मुर्दारों की टोली में। ताल ठोंकता काल घूमता, बस्ती और चौराहों पर, कुछ प्राण ढूँढने निकला हूँ, मैं गद्दारों की गोली में। आग लगाई अपने घर में, दीपक और चिरागों ने, सामान ढूँढने निकला हूँ, मैं अंगारों की होली में। निर्धन नहीं रहेगा कोई, खबर छपी अख़बारों में, अनुदान ढूँढने निकला हूँ, मैं सरकारों की बोली में। सरकण्डे से बने झोंपड़े, निशि-दिन लोहा कूट रहे, आराम ढूँढने निकला हूँ, मैं बंजारों की खोली में। यौवन घूम रहा बे-ग़ैरत, हया-शर्म का नाम नहीं, मुस्कान ढूँढने निकला हूँ, मैं बाजारों की चोली में। बोतल-साक़ी और सुरा है, सजी हुई महफिल भी है, सुखधाम ढूँढने निकला हूँ, मैं मधुशाला की डोली में। विकृतरूप हुआ लीला का, राम-लखन हैं व्यभिचारी, भगवान ढूँढने निकला हूँ, मैं कलयुग की रंगोली में। |
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25 October, 2013
"ढूँढने निकला हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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ढूँढने निकला हूँ
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सुन्दर व्यंग्य विड्म्बन से भरपूर प्रस्तुति।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति ! क्या खूब चीज़ ढूँढने चले !
ReplyDelete"इतिहास बनाने के लिए किसी विशेष, तारीख या दिन की जरूरत नहीं होती।
ReplyDeleteवो तारीख, वो दिन विशेष बन जाता है, जिस दिन इतिहास रचा जाता है।।"
नए केलेंडर में नए वर्ष के आगमन पर शुभकामनाये।