Followers

28 October, 2012

"ग़ज़लकार बल्ली सिंह चीमा के साथ एक दिन"

बल्ली सिंह चीमा मेरे लिए कोई नया नाम नहीं है। आज से 24-25 साल पहले इनसे मेरी मुलाकात हुई थी। उन दिनों बाबा नागार्जुन खटीमा आये हुए थे। बाबा के सम्मान में एक कविगोष्ठी आयोजित की हुई थी। उसमें बल्ली सिंह चीमा के साथ-साथ बहुत से लोग बाबा से मिलने के लिए आये थे। देखिए उस समय का एक चित्र।
आज सुबह-सुबह मेरे मित्र डॉ.सिद्धेश्वर सिंह का फोन आया कि बल्ली सिंह चीमा आये हुए हैं। आप भी आ जाइए। उनके साथ कुछ देर बैठेंगे, गप-शप करेंगे।
मैं जब डॉ. सिद्धेशवर सिंह के घर गया तो बल्ली सिंह चीमा नाश्ता कर रहे थे। मैं भी उनके साथ चाय में शामिल हो गया।
थोड़ी ही देर में खटीमा के दो कवि राजकिशोर सक्सेना और रावेन्द्र कुमार रवि भी आ गये। 
अब रचनाधर्मियों की गिनती 5 हो गई तो काव्य रस तो बरसना ही था।
सबसे पहले मैंने अपनी दो रचनाओं का पाठ किया।
इसके बाद राजकिशोर सक्सेना ने अपनी कुछ कविताएँ सुनाई।
इस अवसर पर रावेन्द्र कुमार रवि ने भी अपने दो नवगीतों का पाठ किया।
तब तक मेजबान डॉ.सिद्धेश्वर सिंह की पुत्री ने उन्हें दो प्रिंट निकाल कर दे दिये। जिनमें उनकी रचनाएँ थी। उन्होंने बहुत प्रभावशाली अन्दाज़ में इन रचनाओं का पाठ किया।
इसके बाद ग़ज़ल की दुनिया के सशक्त हस्ताक्षर 
कवि-शायर बल्ली सिंह चीमा ने अपनी कुछ पुरानी और कुछ ताज़ा ग़ज़लों के बेहतरीन अशआर पेश किये।
घर से बार-बार फोन आ रहा था कि क्लीनिक में रोगी इन्तजार कर रहे हैं और मैं काव्य रस के सागर में गोते लगा रहा था। मगर घर जाना तो जरूरी था इसलिए चीमा जी से बिदा ली और शाम को अपने घर आने का निमन्त्रण उन्हे दे दिया।
ठीक 5 बजे चीमा जी मेरे निवास पर पहुँचे। औपचारिकता निभाने के बाद मैंने उन्हें अपनी प्रकाशित पुस्तकों सुख का सूरज, नन्हे सुमन, धरा के रंग और हँसता गाता बचपन का सैट सप्रेम भेंट किया।
इस प्रकार मेरा आज का दिन चीमा जी के नाम रहा।

05 October, 2012

"श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

बात अन्धश्रद्धा की नहीं है!

   मेरे पूज्य दादा-दादी जी का श्राद्ध पितृपक्ष की षष्टी को पड़ता है। गत वर्ष मैं पंचमी की शाम को देहरी लीप कर उन्हें आमन्त्रित करना भूल गया था। अगले दिन षष्टी थी। विधि-विधान से हमने श्राद्ध किया और उनके हिस्से का भाग दो पत्तलों में रखकर छत की मुंडेर पर रख दिया मगर शाम तक वो भोजन ज्यों का त्यों रखा रहा। एक भी कौआ उन्हें खाने के लिए नहीं आया। मन में पछतावा भी बहुत रहा। 
    लेकिन इस वर्ष हमने वो भूल नहीं की। पंचमी की शाम को देहरी लीप कर पितरों को आमन्त्रित किया कि कल आपका श्राद्ध है। आप अपने हिस्से का भोजन ग्रहण करने अवश्य आयें।
आज षष्टी के दिन हमने विधि-विधान से अपने पूज्य दादा-दादी जी का श्राद्ध किया।
   जैसे ही उनके हिस्से का भोजन पत्तलों में छत की मुंडेर पर रखा, उसको खाने के लिए कागा आ गये।
    कुछ मेरे आर्यसमाजी मित्र इस बात का उपहास भी करते होंगे। मगर मुझे इस बात की परवाह नहीं है। हम लोग जब हवन करते हैं तो प्रचण्ड अग्नि में यज्ञकुंड में घी-हवनसामग्री और पौष्टिक पदार्थ डालते हैं। जिसका सहस्त्रगुना होकर वह पदार्थ पूरे वातावरण में अपनी गन्ध से सारे लोगों को मिल जाता है। आज भी तो हमने वही किया है। हवनकुण्ड में प्रज्वलित अग्नि में भोजन घी और हवनसामग्री की आहुति दी है। जो अन्तरिक्ष में जाकर सभी लोगों को प्राप्त भी हुई है।
    आर्यसमाज ईश्वर, जीव और प्रकृति को अजर और अमर मानता है। फिर जीवात्मा के अस्तित्व को कैसे नकारा जा सकता है। श्राद्ध का अर्थ होता है श्रद्धापूर्वक जीवित के साथ ब्रह्माण्ड में विचरण कर रही जीवात्माओं को भोजन कराना। हमने भी पूरी आस्था और श्रद्धा से वही कार्य आज भी किया है।
   इसके बाद अपने वृद्ध माता-पिता जी को पूरी श्रद्धा से भोजन कराया ताथा उसके बाद खुद भी इस भोजन को खाया है।

LinkWithin