"सिमट रही खेती सारी"
सब्जी, चावल और गेँहू की, सिमट रही खेती सारी।
शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। बाग आम के-पेड़ नीम के आँगन से कटते जाते हैं, जीवन देने वाले वन भी, दिन-प्रतिदिन घटते जाते है, लगी फूलने आज वतन में, अस्त्र-शस्त्र की फुलवारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। आधुनिक कहलाने को, पथ अपनाया हमने विनाश का, अपनाकर पश्चिमीसभ्यता नाम दिया हमने विकास का, अपनी सरल-शान्त बगिया में सुलगा दी है चिंगारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। दूध-दही की दाता गइया, बिना घास के भूखी मरती, कूड़ा खाने वाली मुर्गी, पुष्टाहार मजे से चरती, सुख के सूरज की आशाएँ तकती कुटिया बेचारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। बालक तरसे मूँगफली को, बिल्ले खाते हैं हलवा, सत्ता की कुर्सी हथियाकर, काजू खाता है कलवा, निर्धन कृषक कमाता माटी, दाम कमाता व्यापारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। मुख में राम बगल में चाकू, कर डाला बरबाद सुमन, आचारों की सीख दे रहा, अनाचार का अब उपवन, गरलपान करना ही अब तो जन-जन की है लाचारी। शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।। |
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21 October, 2013
"सिमट रही खेती सारी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लेबल:
. धरा के रंग,
गीत,
सिमट रही खेती सारी
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सुप्रभात आदरणीय, कदाचार, प्रदुषण और भ्रष्टाचार आज की ज्वलंत समस्याएँ हैं। बहुत ही सुन्दर और सटीक प्रस्तुतिकरण।
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति ।आधुनिकता अभिलाषा प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में हम प्रकृति नाश करते जा रहे और प्रकृतिक आपदाओ को न्योता दिए जा रहे है ।
ReplyDeleteपर्यावरण सचेत आधुनिक जीवन की झर्बेरियाँ लिए है यह रचना अपने सीने में प्यार लिए है।
ReplyDeleteकाव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
ReplyDelete"सिमट रही खेती सारी"
सब्जी, चावल और गेँहू की, सिमट रही खेती सारी।
शस्यश्यामला धरती पर, उग रहे भवन भारी-भारी।।
"धरा के रंग"
पर्यावरण सचेत आधुनिक जीवन की झर्बेरियाँ लिए है यह रचना अपने सीने में प्यार लिए है।