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29 January, 2014

"ऐसा पागलपन अच्छा है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
"ऐसा पागलपन अच्छा है"
रचना बाँच सुवासित मन हो
पागलपन में भोलापन हो
ऐसा पागलपन अच्छा है!! 

घर जैसा ही बना भवन हो

महका-चहका हुआ वतन हो
ऐसा अपनापन अच्छा है!! 

प्यारा सा अपना आँगन हो! 
निर्भय खेल रहा बचपन हो! 
ऐसा बालकपन अच्छा है!!

निर्मल सारा नील-गगन हो

खुशियाँ बरसाता साव हो
ऐसा ही सावन अच्छा है!! 

खिला हुआ अपना उपवन हो

प्यार बाँटता हुआ सुमन हो
ऐसा ही तो मन अच्छा है!!

मस्ती में लहराता वन हो!

हरा-भरा सुन्दर कानन हो!

ऐसा ही कानन अच्छा है!!

ऐसे
 बगिया-बाग-चमन हों! 

जिसमें आम-नीम-जामुन हों! 
ऐसा ही उपवन अच्छा है!!

छाया चारों ओर अमन हो! 

शब्दों से सज्जित आनन हो! 
ऐसा जन-गण-मन अच्छा है!! 
ऐसा पागलपन अच्छा है!!

25 January, 2014

"चलना ही है जीवन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
चलना ही है जीवन
जीवन पथ पर, आगे बढ़ते रहो हमेशा,
साहस से टल जायेंगी सारी ही उलझन।
नदी और तालाब, यही देते हैं सन्देशा,
रुकना तो सड़ना है, चलना ही है जीवन।।

पोथी पढ़ने से  जन पण्डित कहलाता है,
बून्द-बून्द मिलकर ही सागर बन जाता है,
प्यार रोपने से ही आता है अपनापन।
रुकना तो सड़ना है, चलना ही है जीवन।।

सर्दी,गर्मी, धरा हमेशा सहती है,
अपना दुखड़ा नही किसी से कहती है,
इसकी ही गोदी में पलते हैं वन कानन।
रुकना तो सड़ना है, चलना ही है जीवन।।

शीतल-मन्द-सुगऩ्ध बयारें चलकर आतीं,
नभ से चल कर मस्त फुहारें जल बरसातीं,
चलने से ही स्वस्थ हमेशा रहता तन-मन।
रुकना तो सड़ना है, चलना ही है जीवन।।

20 January, 2014

"गाँवों के जीवन की याद दिलाते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
"गाँवों के जीवन की याद दिलाते हैं"

जब भी सुखद-सलोने सपने,
नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।

सूरज उगने से पहले,
हम लोग रोज उठ जाते थे,
दिनचर्या पूरी करके हम,
खेत जोतने जाते थे,
हरे चने और मूँगफली के,
होले मन को भाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।।

मट्ठा-गुड़ नौ बजते ही,
दादी खेतों में लाती थी,
लाड़-प्यार के साथ हमें,
वह प्रातराश करवाती थी,
मक्की की रोटी, सरसों
का साग याद आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।।

आँगन में था पेड़ नीम का,
शीतल छाया देता था,
हाँडी में का कढ़ा-दूध,ताकत
तन में भर देता था,
खो-खो और कबड्डी-कुश्ती
अब तक मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।।

तख्ती-बुधका और कलम,
बस्ते काँधे पे सजते थे,
मन्दिर में ढोलक-बाजा,
खड़ताल-मँजीरे बजते थे,
हरे सिंघाड़ों का अब तक, हम
स्वाद भूल नही पाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।।

युग बदला, पहनावा बदला,
बदल गये सब चाल-चलन,
बोली बदली, भाषा बदली,
बदल गये अब घर आंगन,
दिन चढ़ने पर नींद खुली,
जल्दी दफ्तर को जाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की,
हमको याद दिलाते हैं।।

16 January, 2014

"सपनों को मत रोको" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
"सपनों को मत रोको"

मन की वीणा को निद्रा में, 
अभिनव तार सजाने दो! 
सपनों को मत रोको! 
उनको सहज-भाव से आने दो!! 

स्वप्न अगर मर गये, 
जिन्दगी टूट जायेगी, 
स्वप्न अगर झर गये, 
बन्दगी रूठ जायेगी, 
मजबूती से इनको पकड़ो, 
कभी दूर मत जाने दो! 
सपनो को मत रोको! 
उनको सहज-भाव से आने दो!! 

सपना इक ऐसा पाखी है, 
पर जिसके हैं टूट गये, 
क्षितिज उड़ानों के मन्सूबे, 
उससे सारे रूठ गये, 
पल-दो-पल को ही उसको,  
दम लेने दो, सुस्ताने दो! 
सपनो को मत रोको! 
उनको सहज-भाव से आने दो!! 

जीवन तो बंजर धरती है, 
बर्फ यहाँ पर रुकी हुई, 
मत ढूँढो इसमें हरियाली, 
यहाँ फसल नही उगी हुई,  
बर्फ छँटेगा, भरम हटेगा. 
गर्म हवा को आने दो!  
सपनो को मत रोको! 
उनको सहज-भाव से आने दो!!

12 January, 2014

"आँसू और पसीना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
एक गीत
"आँसू और पसीना"
आँसू और पसीने में होती है बहुत रवानी।
दोंनो में ही बहता रहता खारा-खारा पानी।।

दुख आता है तो रोने लगते हैं नयन सलोने,
सुख में भी गीले हो जाते हैं आँखों के कोने,
हाव-भाव से पहचानी जाती है छिपी कहानी।
दोंनो में ही बहता रहता खारा-खारा पानी।।

खारा पानी तो मेहनत की स्वयं गवाही देता,
मोती जैसा तन पर श्रम का स्वेद दिखाई देता,
सारा भेद खोल देती है पल-भर में पेशानी।
दोंनो में ही बहता रहता खारा-खारा पानी।।

ज्वार सिन्धु में आने पर वह शान्त नही रहता है,
समझाने पर नेत्र अश्रु का भार नहीं सहता है,
मुखड़े पर छाई रहती है इनकी सदा निशानी।
दोंनो में ही बहता रहता खारा-खारा पानी।।

08 January, 2014

"जहाँ में प्यार ना होता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
एक गीत
"जहाँ में प्यार ना होता"
अगर दिलदार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!

न होती सृष्टि की रचना,
न होता धर्म का पालन।
न होती अर्चना पूजा,
न होता लाड़ और लालन।
अगर परिवार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!

चमन में पुष्प खिलते क्यों,
हठी भँवरे मचलते क्यों?
महक होती हवा में क्यों,
चहक होती हुमा में क्यों?
अगर शृंगार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!

वजन ढोता नही कोई,
स्रजन होता नही कोई।
फसल बोता नही कोई,
शगल होता नही कोई।
अगर घर-बार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!

अदावत भी नही होती,
बग़ावत भी नही होती।
नही दुश्मन कोई होता,
गिला-शिकवा नही होता।
अगर गद्दार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!

कोई मरता नही जीता,
गरल कोई नही पीता।
परम सुख-धाम पाने को,
नही पढ़ता कोई गीता।
अगर संसार ना होता!
जहाँ में प्यार ना होता!!

04 January, 2014

"मैं कितना अभिभूत हो गया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
एक गीत
"मैं कितना अभिभूत हो गया"
तुमने अमृत बरसाया तो,
मैं कितना अभिभूत हो गया!
मन के सूने से उपवन में,
फिर बसन्त आहूत हो गया!

आसमान में बादल गरजा,
आशंका से सीना लरजा,
रिमझिम-रिमझिम पड़ीं फुहारें,
हरा-भरा फिर ठूठ हो गया!

चपला चम-चम चमक उठी है,
धानी धरती दमक उठी है,
खेतों में पसरी हरियाली,
मन प्रमुदित आकूत हो गया!

जब स्वदेश पर संकट आया,
सीमा पर वैरी मंडराया,
मातृ-भूमि की बलिवेदी पर
फिर से धन्य सपूत हो गया!

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