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23 May, 2014

"कठिन बुढ़ापा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
एक कविता
"कठिन बुढ़ापा"
बचपन बीता गयी जवानी, कठिन बुढ़ापा आया।
कितना है नादान मनुज, यह चक्र समझ नही पाया।

अंग शिथिल हैं, दुर्बल तन है, रसना बनी सबल है।
आशाएँ और अभिलाषाएँ, बढ़ती जाती प्रति-पल हैं।।

धीरज और विश्वास संजो कर, रखना अपने मन में।
रंग-बिरंगे सुमन खिलेंगे, घर, आंगन, उपवन में।।

यही बुढ़ापा अनुभव के, मोती लेकर आया है।
नाती-पोतों की किलकारी, जीवन में लाया है।।

मतलब की दुनिया मे, अपने कदम संभल कर धरना।
वाणी पर अंकुश रखना, टोका-टाकी मत करना।।

देख-भालकर, सोच-समझकर, ही सारे निर्णय लेना।
भावी पीढ़ी को उनका, सुखमय जीवन जीने देना।।

8 comments:

  1. आपकी लिखी रचना शनिवार 24 मई 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुन्दर सार्थक रचना !

    ~सादर

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  3. Sundar , Sahaj Dil se likhi rachana ke liye Sadhuvad

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  4. बहुत प्रेरक रचना

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  5. बुडापे का भी आनंद उठाया जा सकता है अगर हम आपकी सीख पर चलें।

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  6. कितना है नादान मनुज, यह चक्र समझ नही पाया। ... बहुत सुन्दर.. यही सत्य है और अकाट्य ..

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  7. वृद्धावस्था वस्तुतः अनुभव की मोतियों से पिरोई माला है
    जो दूसरों के जीवन को सुन्दर बना जाती है
    सादर !

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