"बढ़े चलो-बढ़े चलो"
है कठिन बहुत डगर, चलना देख-भालकर,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
दलदलों में धँस न जाना, रास्ते सपाट हैं
ज़लज़लों में फँस न जाना, आँधियाँ विराट हैं,
रेत के समन्दरों को, कुशलता से पार कर,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
मृगमरीचिका में, दूर-दूर तक सलिल नही,
ताप है समीर में, सुलभ-सुखद अनिल नहीं,
तन भरा है स्वेद से, देह चिपचिपा रही,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
कट गया अधिक सफर, बस जरा सा शेष है,
किन्तु जो बचा हुआ, वही तो कुछ विशेष है,
दीप झिलमिला रहे, पाँव डगमगा रहे,
धूप चिलचिला रही, बढ़े चलो-बढ़े चलो!!
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03 September, 2013
"बढ़े चलो-बढ़े चलो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गीत,
धरा के रंग,
बढ़े चलो-बढ़े चलो
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ati sundar bhavon kee abhivyakti .badhai
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ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना ! बधाई स्वीकार करें !
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