मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
"सपनों में घिर आते हैं"
वो अनजाने से परदेशी!
मेरे मन को भाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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पतझड़ लगता है वसन्त,
वीराना सा लगता मधुबन,
जब वो घूँघट में से अपनी,
मोहक छवि दिखलाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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उनकी आहट पाकर गुनगुन,
गाने लगता भँवरा गुंजन,
शोख-चटक कलिका बनकर,
वो उपवन में मुस्काते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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चकाचौंध कर देने वाली,
होती उनकी चमक निराली,
आसमान की छाती पर,
जब काले बादल छाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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अँखियाँ देतीं मौन निमन्त्रण,
बिन पाती का है आमन्त्रण,
सपनों की दुनिया को छोड़ो,
मन से तुम्हे बुलाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-