Followers

12 February, 2014

"आशंका" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
कविता
कौंध गई बे-मौसम, 
चपला नीलगगन में! 
अनहोनी की आशंका, 
गहराई मन में!!  

तेजविहीन हुए तारे, 
चन्दा शर्माया। 
गन्धहीन हो गया सुमन, 
उपवन अकुलाया!! 

रंग हुए बदरंग, 
अल्पना डरी हुई है! 
भाव हुए हैं भंग 
कल्पना मरी हुई है!! 

खलिहानों में पड़े हुए 
गेहूँ सकुचाए! 
दीन-किसानों के 
चमके चेहरे मुर्झाए!!  

वही समझ सकता है, 
जिसकी है यह माया! 
कहीं गुनगुनी धूप, 
कहीं है शीतल छाया!!

3 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-02-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
    आभार

    ReplyDelete
  2. अच्छी प्रतीकों में काम की बात कही है !

    ReplyDelete
  3. मानविय वेदना-संवेदना को बहुत ही उत्कृष्ट तौर पे आपने शब्दों में बयाँ किया है आदरणीय सर।

    ReplyDelete

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथासम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।

LinkWithin