मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
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एक गीत
"लगे खाने-कमाने में"
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छलक जाते हैं अब आँसू, ग़ज़ल को गुनगुनाने में।
नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
हुए बेडौल तन, चादर सिमट कर हो गई छोटी,
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में।
दरकते जा रहे अब तो, हमारी नींव के पत्थर,
चिरागों ने लगाई आग, खुद ही आशियाने में।
लगे हैं पुण्य पर पहरे, दया के बन्द दरवाजे,
दुआएँ कैद हैं अब तो, गुनाहों की दुकानों में।
जिधर देखो उधर ही “रूप” का, सामान बिकता है,
रईसों के यहाँ अब, इल्म रहता पायदानों में।
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बढ़िया -
ReplyDeleteआभार गुरूजी-
दरकते जा रहे अब तो, हमारी नींव के पत्थर,
ReplyDeleteचिरागों ने लगाई आग, खुद ही आशियाने में
बहुत सुंदर.
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
ReplyDeleteप्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
हुए बेडौल तन, चादर सिमट कर हो गई छोटी,
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में
भरोसा हमें अपने जज़्बात पर है,
मगर उनको एतबार अपने पे कम हैं।
अन्धेरों-उजालों भरी जिन्दगी में,
हर इक कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं।
वाह बहुत खूब। सशक्त भाव और अर्थ की अन्विति एवं रूपक तत्व लिए है यह रचना।
लगे खाने-कमाने में---- क्या सच कहा है शास्त्री जी......हाँ सिर्फ योगी ही नहीं ..सभी खाने -कमाने में लगे हैं .तभी तो यह हाल है कि योगी भी बेहाल है |
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