19 November, 2013

"महक कहाँ से पाऊँ मैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"महक कहाँ से पाऊँ मैं"
पतझड़ के मौसम में,
सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

बीज वही हैं, वही धरा है,
ताल-मेल अनुबन्ध नही,
हर बिरुअे पर 
धान 
लदे हैं,
लेकिन उनमें गन्ध नही,
खाद रसायन वाले देकर,
महक कहाँ से पाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

उड़ा ले गई पश्चिम वाली,
आँधी सब लज्जा-आभूषण,
गाँवों के अंचल में उभरा,
नगरों का चारित्रिक दूषण,
पककर हुए कठोर पात्र अब,
क्या आकार बनाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

गुरुवर से भयभीत छात्र,
अब नहीं दिखाई देते हैं,
शिष्यों से अध्यापक अब तो,
डरे-डरे से रहते हैं,
संकर नस्लों को अब कैसे,
गीता ज्ञान कराऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
पतझड़ के मौसम में,
सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति !


    गुरुवर से भयभीत छात्र,
    अब नहीं दिखाई देते हैं,
    शिष्यों से अध्यापक अब तो,
    डरे-डरे से रहते हैं,
    संकर नस्लों को अब कैसे,
    गीता ज्ञान कराऊँ मैं?
    वीराने मरुथल में,
    कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

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  2. बहुत ही बेहतरीन रचना...
    :-)

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