मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
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कविता
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कौंध गई बे-मौसम,
चपला नीलगगन में!
अनहोनी की आशंका,
गहराई मन में!!
तेजविहीन हुए तारे,
चन्दा शर्माया।
गन्धहीन हो गया सुमन,
उपवन अकुलाया!!
रंग हुए बदरंग,
अल्पना डरी हुई है!
भाव हुए हैं भंग
कल्पना मरी हुई है!!
खलिहानों में पड़े हुए
गेहूँ सकुचाए!
दीन-किसानों के
चमके चेहरे मुर्झाए!!
वही समझ सकता है,
जिसकी है यह माया!
कहीं गुनगुनी धूप,
कहीं है शीतल छाया!!
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-02-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
ReplyDeleteआभार
अच्छी प्रतीकों में काम की बात कही है !
ReplyDeleteमानविय वेदना-संवेदना को बहुत ही उत्कृष्ट तौर पे आपने शब्दों में बयाँ किया है आदरणीय सर।
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