19 December, 2013

"कठिन बुढ़ापा आया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
 
एक कविता
"कठिन बुढ़ापा आया"
बचपन बीता गयी जवानी, कठिन बुढ़ापा आया।
कितना है नादान मनुज, यह चक्र समझ नही पाया।

अंग शिथिल हैं, दुर्बल तन है, रसना बनी सबल है।
आशाएँ और अभिलाषाएँ, बढ़ती जाती प्रति-पल हैं।।

धीरज और विश्वास संजो कर, रखना अपने मन में।
रंग-बिरंगे सुमन खिलेंगे, घर, आंगन, उपवन में।।

यही बुढ़ापा अनुभव के, मोती लेकर आया है।
नाती-पोतों की किलकारी, जीवन में लाया है।।

मतलब की दुनिया मे, अपने कदम संभल कर धरना।
वाणी पर अंकुश रखना, टोका-टाकी मत करना।।

देख-भालकर, सोच-समझकर, ही सारे निर्णय लेना।
भावी पीढ़ी को उनका, सुखमय जीवन जीने देना।।

6 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आपका-

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  2. बहुत खूब .... जीवन के असली सत्य से रूबरू करा दिया आपने ...
    राम राम शास्त्री जी ...

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  3. अंग शिथिल हैं, दुर्बल तन है, रसना बनी सबल है।आशाएँ और अभिलाषाएँ, बढ़ती जाती प्रति-पल हैं।।
    कटु सत्य ...............वाह

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  4. सुन्दर सौद्देश्य लेखन।


    यही बुढ़ापा अनुभव के, मोती लेकर आया है।
    नाती-पोतों की किलकारी, जीवन में लाया है।।

    मतलब की दुनिया मे, अपने कदम संभल कर धरना।
    वाणी पर अंकुश रखना, टोका-टाकी मत करना।।

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  5. बधाई.....सुन्दर व सामयिक रचना हेतु ....

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