मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
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"मोटा-झोटा कात रहा हूँ"
मोटा-झोटा कात रहा हूँ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
खोटे सिक्के जमा किये थे,
मीत अजनबी बना लिए थे,
सम्बन्धों की खाई को मैं,
खुर्पी लेकर पाट रहा हूँ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
सुख का सूरज नजर न आता,
दुख का बादल हाड़ कँपाता,
नभ पर जमे हुए कुहरे को,
दीप जलाकर छाँट रहा हूँ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
आशाएँ हो गयी क्षीण हैं,
सरिताएँ जल से विहीन हैं,
प्यास बुझाने को मैं अपनी,
तुहिन कणों को चाट रहा हूँ ।
मेरी झोली में जो कुछ है,
वही प्यार से बाँट रहा हूँ।।
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29 April, 2014
"मोटा-झोटा कात रहा हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
25 April, 2014
"सिमट रही खेती" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्य संग्रह 'धरा के रंग' से एक गीत
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"सिमट रही खेती"
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सब्जी, चावल और
गेँहू की, सिमट
रही खेती सारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
बाग आम
के-पेड़ नीम के आँगन से कटते जाते हैं,
जीवन
देने वाले वन भी, दिन-प्रतिदिन घटते जाते है,
लगी
फूलने आज वतन में, अस्त्र-शस्त्र की फुलवारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
आधुनिक
कहलाने को, पथ
अपनाया हमने विनाश का,
अपनाकर
पश्चिमीसभ्यता नाम दिया हमने विकास का,
अपनी
सरल-शान्त बगिया में सुलगा दी है चिंगारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
दूध-दही
की दाता गइया, बिना घास के भूखी मरती,
कूड़ा
खाने वाली मुर्गी, पुष्टाहार मजे से चरती,
सुख के
सूरज की आशाएँ तकती कुटिया बेचारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
बालक
तरसे मूँगफली को, बिल्ले
खाते हैं हलवा,
सत्ता
की कुर्सी हथियाकर, काजू खाता है कलवा,
निर्धन
कृषक कमाता माटी, दाम कमाता व्यापारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
मुख में
राम बगल में चाकू, कर डाला बरबाद सुमन,
आचारों
की सीख दे रहा, अनाचार का अब उपवन,
गरलपान
करना ही अब तो जन-जन की है लाचारी।
शस्यश्यामला
धरती पर, उग रहे
भवन भारी-भारी।।
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21 April, 2014
"विध्वंसों के बाद नया निर्माण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"विध्वंसों के बाद नया निर्माण"
![]() पतझड़ के पश्चात वृक्ष नव पल्लव को पा जाता। विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।। भीषण सर्दी, गर्मी का सन्देशा लेकर आती, गर्मी आकर वर्षाऋतु को आमन्त्रण भिजवाती, सजा-धजा ऋतुराज प्रेम के अंकुर को उपजाता। विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।। ![]() खेतों में गेहूँ-सरसों का सुन्दर बिछा गलीचा, सुमनों की आभा-शोभा से पुलकित हुआ बगीचा, गुन-गुन करके भँवरा कलियों को गुंजार सुनाता। विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।। पेड़ नीम का आगँन में अब फिर से है गदराया, आम और जामुन की शाखाओं पर बौर समाया, कोकिल भी मस्ती में भरकर पंचम सुर में गाता। विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।। परिणय और प्रणय की सरगम गूँज रहीं घाटी में, चन्दन की सोंधी सुगन्ध आती अपनी माटी में, भुवन भास्कर स्वर्णिम किरणें धरती पर फैलाता। विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।। |
17 April, 2014
"श्वाँसों की सरगम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"श्वाँसों की सरगम"
कल-कल, छल-छल करती गंगा,
मस्त चाल से बहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।
हो जाता निष्प्राण कलेवर,
जब धड़कन थम जाती हैं।
सड़ जाता जलधाम सरोवर,
जब लहरें थक जाती हैं।
चरैवेति के बीज मन्त्र को,
पुस्तक-पोथी कहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।
हरे वृक्ष की शाखाएँ ही,
झूम-झूम लहरातीं हैं।
सूखी हुई डालियों से तो,
हवा नहीं आ पाती है।
जो हिलती-डुलती रहती है,
वही थपेड़े सहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
यही कहानी कहती है।।
काम अधिक हैं थोड़ा जीवन,
झंझावात बहुत फैले हैं।
नहीं हमेशा खिलता गुलशन,
रोज नहीं लगते मेले हैं।
सुख-दुख की आवाजाही तो,
सदा संग में रहती है।
श्वाँसों की सरगम की धारा,
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13 April, 2014
"अनजाने परदेशी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"अनजाने परदेशी"
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वो अनजाने से परदेशी!
मेरे मन को भाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
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पतझड़ लगता है वसन्त,
वीराना भी लगता मधुबन,
जब वो घूँघट में से अपनी,
मोहक छवि दिखलाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
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गाने लगता भँवरा गुंजन,
शोख-चटक कलिका बनकर,
वो उपवन में मुस्काते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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होती उनकी चमक निराली,
आसमान की छाती पर,
जब काले बादल छाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
सपनों में घिर आते हैं।।
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अँखियाँ देतीं मौन निमन्त्रण,
बिन पाती का है आमन्त्रण,
सपनों की दुनिया को छोड़ो,
मन से तुम्हे बुलाते हैं।
भाँति-भाँति के कल्पित चेहरे,
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09 April, 2014
"अरमानों की डोली" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"अरमानों की डोली"
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05 April, 2014
"स्वप्न" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"स्वप्न"
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